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________________ ऊँ ह्रीं पञ्चमेरुसंबंध्य शीति जिनालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। अष्टकरम शुभ चंदन पीस्यौ ताकी धूप बनाई। धर्म ध्यान बहुतेज अगनि में जारी प्रीति बढ़ाई।। वीसी चार सवै जिन मन्दिर पाँच मेरु के जानौं। सो मैं मन वच काय जजत हों करन पाप को हानौं।। ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसंबंध्य शीति जिनालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वामीति स्वाहा। पाप रहत परणाम किए फल समता थाल भराये। आनंद होत सुलेय हाथ में बहुविध जिन गुन गाये।। वीसी चार सवै जिन मन्दिर पाँच मेरु के जानौं। सो मैं मन वच काय जजत हों करन पाप को हानौं।। ऊँ ह्रीं पञ्चमेरुसंबंध्य शीति जिनालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। ऐसे आठों द्रव्य मनोहर ताको अरघ बनाई। निर्मल भाव बनाय रकेवी ता धर शीश नवाई।। वीसी चार सवै जिन मन्दिर पाँच मेरु के जानौं। सो मैं मन वच काय जजत हों करन पाप को हानौं।। ऊँ ह्रीं पञ्चमेरुसंबंध्य शीति जिनालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो अनध्य पद प्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। पाँचों मेरु असी जिन धाम। हैविन किये ध्रुव तिस ठाम। तिन मध बिम्ब देव जिनराय। सो मैं पूजो अर्घ चढ़ाव। ऊँ ह्रीं पञ्चमेरुसंबंध्यशीतिजिनालयस्थबिम्बेभ्यो महाघ निर्वपामीति स्वाहा। 162
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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