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________________ कविकवलों गुणभाषै अपार। बहु कहिये कहांजग मांहिसार।।11।। (इति व्रतमहिमा समाप्त) समुच्चय पूजा स्थापना (चाल जोगीरासे की) पांचो मेरु महान कनक को, तिन पै जिनके थानों। गिनत असी तिन माहि बिम्ब हैं, रतन मई पुन खानों।। देव खगा तौ जाय जजै वहां, हम यहाँ भावना भावें। ___ता मेरन के जिनबिम्ब सु, थापन थाप जजावें।। ऊँ ह्रीं पञ्चमेरुसंबंध्यशीतिजिनालयस्थबिम्बसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वननम् ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसंबंध्यशीतिजिनालयस्थबिम्बसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं पञ्चमेरुसंबंध्यशीतिजिनालयस्थबिम्बसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। निर्मल मन सो ही जल उज्ज्वल भाजन भाव करायो। आय॑ भाव रस सोही जीवा ता बिन पय धर लायो।। वीसी चार सवै जिन मन्दिर पाँच मेरु के जानौं। सो मैं मन वच काय जजत हों करन पाप को हानौं।। ॐ ह्रीं पञ्चमेरुसंबंध्यशीतिजिनालयस्थबिम्बेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। शीतल भाव कियौ शुभ चंदन भक्त गंध को धारी। मंद मोह झारी करता मैं भर लायौ सुखकारी।। वीसी चार सवै जिन मन्दिर पाँच मेरु के जानौं। सो मैं मन वच काय जजत हों करन पाप को हानौं।। 160
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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