SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधु परमेष्ठि पूजा दोहा बीस आठ गुण साधु के, नमों तास कर जोर। ताके बन्दे पाप सब, जाय सकल ढिग छोर।। ऊँ ह्रीं अष्टाविंशतिमूलगुणसहितायसाधुपरमेष्ठिन्! अत्र अवतार अवतरत संवौष्ट। (आह्वानं) ऊँ ह्रीं अष्टाविंशतिमूलगुणसहितायसाधुपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं अष्टाविंशतिमूलगुणसहितायसाधुपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। अष्टाविंशति गुणजुत होय, साधु हुये जग के गुरु जोय। आतम रंग राचे मुनिनाथ, पाऊँ इन पद भव भव साथ। ऊँ ह्रीं अष्टाविंशतिमूलगुणसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। तिरस थावर जीव सबही, आज सम जाने सही। मन वचन तन जिय को न दुखदा, सकल पै समता लही।। जो दुष्ट कोई आय पीड़े, तो न कबहूं दुख करें। ते साधु पूजों अध्य कर ले, तास फल सुख संचरें।। ऊँ ह्रीं अहिंसामहाव्रतसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। तन जाय तो नहिं असत भाषत, कहे सतवच सारजू। चवै सम्यक वैन सोहू, सूत्र के अनुसार जू।। तिस वचन को मुनि सकल प्रानी, पापमति अपनी हरे। ते साधु पूजों अध्य कर ले, तास फल सुख संचरें।। ॐ ह्रीं सत्यमहाव्रतसहितसाधुपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 1349
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy