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________________ जय कर्म छार कीने जिनेश, सुर-नर-मुनि मिल ध्यावत जिनेश। चौबीसो जिन समवादिसर्न, सब संग विराजत सुनो वन।। जय गणधर चौदह सौ विशाल, त्रेपन वानी झेलत त्रिकाल। सब संग-भेद गनि सात सार, अट्ठाइस लख हृदयें विचार॥ अड़तालिस सहस कहे बखान, जा भिन्न-भिन्न वर्णन सुजान। जय नव सै सेंतिस सहस आन, पूरबधारी चालीस मान।। जय बीस लाख सौ पाँच गाय, पचपन मुनिशिष चित में सु लाय। इक लाख सताइस सहस गाय, धारें जु अवधि छह से सु लाय।। वसु सौ पौने दो लाख जान, केवलज्ञानी जिनवर समान। इक लाख सु पैंतालिस हजार, नव सौ सु पाँच चित में विचार।। पर के मन की जानत सु बात, जे धरों विक्रिया सुनो भ्रात। पैंतीस सहस दो लाख धार, नव सौ जिनराज कहे निहार।। चौबीस सहस सौ तीन जान, इक लाख वाद जीते प्रमान। जय सात संघ भाषे सु गाय, जय सुनो आर्यिका मन-मिलाय।। जय लाख चवालिस गनि हजार, चौरानव जान लिखो सुधार। जय साढ़े छह सौ धर्म-लीन, जय लसें आर्यिका शुभ प्रवीन।। श्रावक अड़तालिस लाख जान, जिनधर्म हृदय तिनके समान। श्रावकनी छयानव लाख सार, मिथ्यात्व-त्याग बैठी निहार।। जिनराज दरश देखें विलोक, उन्हीं के गुण मन में सु धोक। अनुबन्ध केवली लेहु जान, तेरह सौ आठ कहे बखान।। ग्यारह सौ ब्यासी परम जान, गति सन्त केवली हृदय आन। गत सिद्ध यती चौबीस लाख, चौंसठ हजार चौ चार भाख। अनउत्तर गति दो लाख जान, वसु सौ सत्तहत्तरि सहस आन। 1310
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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