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________________ __षट् आवश्यक संजम सुपक्ष, वैयावृत पालन प्रानरक्षा। सिर नाभि प्रमान न द्वार जेह, नहिं करत प्रवेश गृहस्थ-गेह। जे अन्तराय मल दोष टार, इकवार असन पख मासकार।। जे करणहेतु ना अशन लेत, बलवृद्धि न काज न स्वाद हेत। तनुवर्धन काज न देहकान्ति, नहिं आयुवर्धन सदा जु शान्ति।। लखि अति उपसर्ग दयाअभाव, अति रोगविर्षे नहिं अशन चाव। ब्रह्मचर्यभाव संन्यास माँहि, इन कारन लघुभोजन कराहिं।। जे वीरासन खड्गासनीय, धनुषासन वज्रासन मुनीय। गोदोहन पद्मासन जु वीर, नानाविधि आसन धरनधीर।। जिनके पनविधि स्वाध्याय चित्त, स्वाध्याय वाचना माँहि नित्त। जे चार सुधाता पाय वेश, स्वाध्याय करें सब ही मुनेश।। कर पग जलतें शुचिकर प्रक्षाल, घर पद्मासन कर नमस्कार। ___ जे शास्त्र उच्चार करें हमेश, मरयादापूर्व सवै मुनेश। । जे अवधि तुरि धर चरमज्ञान, इन धारक मुनि कहिये महान। पुनि राजऋषीश्वर ये चितार, अक्षीण विक्रिया ऋद्धि धार।। जे बुद्धि-औषधी ऋद्धिवन्त, ते परम ऋषीश्वर परम सन्त। जे देव ऋषीश्वर गगनगामि, जे परम ऋषी केवलि प्रमान।। दीपक चिरकाल तने जु सोय, मन-बल पुनि ज्ञान विशेष होय। सँहनन वर वैराग्य भाव, एकाविहारि मुनगुण लखाय।। जे द्वादशांग श्रुतज्ञान पाय, ता बल जुगश्रेणि चढ़े सु धाय। जे चार ज्ञानधर पन सु जेहिं, गुरुनिकट न दीक्षा सीख देहि।। प्राश्चितनामा तप मांहि जेहि, गुरुकहिं तामाफिक दण्डलेहि। जे नानावि धके धारि नेम, ध्यावत, अध्यातम ध्यान जेम।। 131
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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