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________________ ऊँ ह्रीं विचित्रधर्मचक्रसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। प्रथम पाठ विर्षे दिश चार जू, धर्मचक्र सु चार निहार जू। वसु सु मंगल द्रव्य बने तहाँ, प्रथमपीठ विराजत हैं जहाँ।। ऊँ ह्रीं चतुर्दिश-वसुमंगलद्रव्य-धर्मचक्रसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। पीठ दूज पर चढ़ ना लहें, जान जिनवाणी को इह कहे।। पुण्य श्री जिनदेव विशाल जू, करत पूजा इन्द्र त्रिकाल जू।। ॐ ह्रीं द्वितीयपीठे इन्द्रगत्यभावातिशय-व्यवस्थासंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। जान ऊपर पीठ सु दूसरो, धनुष पच्चिस सौ सूची धरो। धनुष चार सु ऊँचो जानिये, लसत आठ शिवान प्रमानिये।। ऊँ ह्रीं सुवर्णमयोच्चद्वितीयपीठसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। पीठ दूजी परिध निहारिये, लसत खम्भ अनेक विचारिये। बन रहे सु सुराहीदार जू, स रस सुन्दर पहल सुधार जू।। ऊँ ह्रीं विचित्रविविधिरचनायुक्तद्वितीयपीठसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। लसत कंचनमय खम्भा खड़े, पांच-वर्ण सु रतननसों जड़े। बन रही मरगोले सार जू, शिखर-सहित सु नैन निहार जू।। 1292
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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