SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देखत मानी मो मद विलाय, जय-जय श्री मानस्तम्भ गाय।। इक भूपवृक्ष जिनभवन चार, जय या-विध भाषत हरष धार। जय ऐसे चारों दिश बखान, यह सोलह जिनमन्दिर प्रमान।। ये सोलह जिनमन्दिर विशाल, सुर नर मिल पूजत हैं त्रिकाल। जय पूरव पुण्य उदय सु आय, जय जिन पूजत आनन्द पाय।। जय जिन मंदिर बाहर निहार, तरु झमि रहे शाखा-पसार। तहँ चन्द्रकान्तमणि-शिला जान, शशि की युति लज्जित भई मान।। जय तापर श्री मुनिगुण-निधान, धर ध्यान विराजत क्षमावान्। जय दर्शन कर भविमुनि सु पास, वृष-वचन सुनें आनन्दरास।। धर्मामृत मुनि-वच सुन प्रवीन, निजआतम का चिन्तवन कीन। जय कोई मुनि-ढिग जो माँड, बैठे सब-विध परिग्रह सु छाँड।। ऐसी शोभा जिनभवन-द्वार, सुर-नर लख क्रीडा करत सार। जय जिन-गुण-महिमा आगम जान, कवि कौन कहें ताको बखान।। पर तुच्छबुद्धि मेरी सु जान, सोधी जो पण्डित बुद्धिमान्। उपदेश पाय सब सुख सु राय, कवि 'लाल' सु जिन-पद शीश नाय।। दोहा श्री जिन-महिमा अगम है को कवि पावे पार। तुच्छबुद्धि कवि 'लाल' जी भाषा रची विचार॥ ॐ ह्रीं चतुर्दिशि पारिजातभूपवृक्षस्य जिनेन्द्रेभ्यः पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा। अडिल्ल जो बाँचे यह पाठ सरस मन लाय के, सुने भव्य दे कान सु मन हरषाय के। धन-धान्यादिक पुत्र-पौत्र-सम्पति धरे, नरसुर के सुख भोग बहुरि शिव-तिय बने। 1270
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy