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________________ वृक्ष की चारों दिश जानिये, चार जिनमन्दिर उर आनिये। लसत मानस्तम्भ सु देखिये, भूपवृक्ष सु एक विशेषिये।। ॐ ह्रीं षष्ठभूमौचतुर्दिशासुचतुःचतुःमन्दिरस्थित-भूपवृक्षसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। एक वृक्ष-तनों वर्णन करों, चारदिश चारों ऐसे धरों। धन्य पुण्य जिनेश्वरको सही, देखके भवि पुण्य करो यही।। ऊँ ह्रीं प्रथमभूपवृक्षसमान-शेषभूपवृक्षसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। (मदअवलिप्तकपोल छन्द) मेरुवृक्ष 'आग्नेय' दिशा-माँही परमानो, 'नैर्ऋत' में मन्दार सुभग शोभाकार जानो। 'वायव' में सन्तान जानके सन्मुख हूजे, पारिजात ‘ईशान' दिशा कवि 'लाल' सु पूजे।। ॐ ह्रीं षष्ठभूमौ चतुर्विदिशसु मेरुवृक्षं-द्विचतुर्भूपवृक्षसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1257
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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