SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अडिल्ल तिन गोखिन में सुर विद्याधर जायके, बैठक हर्ष बढ़ाय सु जिनगुन गायके। अब सो वर्णन और सुनो न विलोकिये, योगत्रय सु लगाय जु मन में धोकिये।। ऊँ ह्रीं चतुर्थभूमौ अशोकवने द्वादशद्वार्याः उपरि देवाद्यधिष्ठित-गवाक्ष संयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। (सुन्दरी छन्द) बन रही बारहदरि सार जू, तास आभ्यन्तर सु विचार जू। चौक-बीच सु कोट जुतीन जू, बी पीठ सु तीन नवीन जू।। ऊँ ह्रीं चतुर्थभूमौ द्वादशद्वार्याः आभ्यन्तरे दुर्गत्रयमध्ये पीठत्रय संयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। तीन पीठ सु ऊपर राजई, भूपवृक्ष अशोक विराजई। सरस सीधे वृक्ष सु जानिये, परम सुन्दरता परमानिये।। ऊँ ह्रीं चतुर्थभूमौ जिनदेहप्रमाणतः द्वादशगुणोत्तुंगाशोकवृक्षयुक्त-पीठत्रय संयुक्त समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। फिर सु कैसो वृक्ष अशोक है, नयन देख सु भाजत शोक है। मूल में हीरा सु जड़े सही, हेममय सुन्दर शाखा कही।। ऊँ ह्रीं चतुर्थभूमौ विविधशोभायुक्ताशोकवृक्ष संयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। 1234
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy