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________________ ताके आगे कोट दूसरी जानिये, भगा चार परमान सु मन में आनिये। तीजो वेदी सुभग सु नैन निहारिये, भाग चार सौ परम उर धारिये। ॐ ह्रीं चतुर्थभूमौ तुर्यभागप्रमाणद्वितीयदुर्गतृतीयवेदिकासंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। तिन दोउन के बीच सु विदिशा में कही, चौथी उपवनभूमि जान सुन्दर सही। वलय व्यास के भाग चवालिस लीजिये, ताके आगे वर्णन और सुनीजिये। ऊँ ह्रीं चतुर्थभूमौ द्वितीयदुर्गतृतीयवेदिका-चत्वारिंशद्भागोपवनसंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। (सुन्दरी छन्द) जान दिश ‘आग्नेय' सु हेत है, वन अशोक महाछवि देत है। दिश सु ‘नैर्ऋत' देख विचारिये, सप्तवर्ण सु वन मन धारिये।। ऊँ ह्रीं चतुर्थभूमौ ‘आग्नेयदिशि' आशोकवनेन, नैर्ऋतदिशि' सप्तपर्णवनेनसंयुक्त समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। दिश सु 'वायव' में चम्पक कहो, आम्रवन ‘ईशान' स दिश लहो। वृक्ष ओर अनेक तहाँ घने, सहज शोभा कर मण्डित ठने।। ॐ ह्रीं चतुर्थभूमौ वायव्यदिशायां चम्पकवनेन, ईशानदिशायाम् आमवनेन संयुक्तसमवशरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। वृक्ष जाति अनेक सु देखिये, भूप-वृक्ष सु चार विशेषिये। गिन अशोक सु चम्पक दूसरो, सप्तपर्ण सु आम्र लसे खरो।। ऊँ ह्रीं चतुर्थभूमौ अशोक-चम्पक-सप्तपर्ण-रसालवन-मध्यस्थ-भूपवृक्ष-संयुक्तसमवशरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। 1232
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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