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________________ (सुन्दरी छन्द) बन रहे कलशा तिन पर तहां, जानियो सुन्दर सु ध्वजा जहां। चार कोण सु खम्भा चार जू, बन रहे बंगला सुखकार जू।। ऊँ ह्रीं अनेकप्रकोष्ठयुक्तेतृतीयभूमिसंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। सुभग कलशा ता-ऊपर कहे, परम सुन्दर मण्डप बन रहे। रहे है तहँ अलिगण आयके, सहज सार सुगन्ध सु पायके।। ऊँ ह्रीं तृतीयभूमि-पुष्पवाटिका-मण्डपसंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। रौंस चौतरफा ऐसी बनी, रतनजडित सु क्यारी है घनी। बीच में सुरवृक्ष सु फूल के, बन रहे सुन्दर बिन शूल के।। ऊँ ह्रीं तृतीयभूमिरत्नखचितसीमाचतुरालवालसंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। कहुँ सु 'वेला' सुंदर देखिये, कहुँ सु सार गुलाब सु पेखिये। कहुँ ‘गुलमेंहदी' शोभा लही, कहुँ चमेली फुल्लित है सही।। कहुँ सु ‘गेदा' सुन्दर सार जू, खिल रहे जु हजारों द्वार जू। फूलियो ‘मचकुन्द' सुहावनो, ‘केवरो' महके मनभावनो।। ॐ ह्रीं तृतीयभूमौ अनेकपुष्पयुक्तपुष्पवाटिका संयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1227
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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