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________________ पुल के ऊपर बैठक बहुत बनी सही, दोऊ तरफ जानि परम सुख की मही। तिन पर गुमटी कलशा कंचनमय कहे, तिनपर ध्वजा विशाल सुन्दर लहलहे।। ऊँ ह्रीं सेतोः उपरि उभयपाश्वे कलश-ध्वजा-बहशिखरयुक्त-बहुविष्ठरसंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। सायवान दल-परदा करि शोभें तहां, नानाविध अभिराम चित्र अंकित जहाँ। ऐसी बैठक बनी परम छवि सो लहे, झलकें खाई नीर-विर्षे दुति को कहे।। ऊँ ह्रीं सेतोः उपरि अनेकविष्ठरसंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। (सुन्दरी छन्द) उदधि क्षीर-समान सु नीर जू, सरस खाई नीर गहीर जू। लसत हैं नौकायें सार जू, बहुत छोटी-बड़ी सु धार जू।। ॐ ह्रीं अनेकलघुविशालनौकासंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। बने बंगला तिन ऊपर सही, सुभग छतरी मनमोहें वही। सिंह-हय-गज आदिक मुंह कहे, रतनजडित परम छवि को लहे।। ऊँ ह्रीं यवनिशोभाशोभितानेकनौकासंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। तिन सु नौकाओं में सुर जानिये, सुभग विद्याधर परमानिये। बजत साज सु जिनगुन गावते, करहिं नृत्य सु पुण्य उपावते।। ऊँ ह्रीं जिनगुणगायक-देवविद्याधर-युक्तनौकासंयुक्त-समवशरणस्थित जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। 1224
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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