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________________ गिन हजार सु बीस सिवान जू हस्त एक सु ऊँचे जान जू। कोश एक लम्बाई भाषिये हस्त एक सु चौड़े राखिये।। ऊँ ह्रीं श्रीऋषभदेव विंशतिसहस्र-हस्तोच्चेन एकहस्तायतेन एककोशलम्बेन सोपानसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। और तीर्थंकर तेईस के भाषिये क्रम-हानि सु ईश के। चाहिये सो जहाँ जैसी कही सरसबुद्धि विचार गहो सही।। ऊँ ह्रीं अन्तिम-त्रयोविंशति-तीर्थंकराणां यथाविधहीन-हीन-सोपानसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। धनुष पांच हजार प्रमानिये हाथ बीस हजार सु जानिये। चारहस्त सु धनुष गनीजिये सम-सुभूमि ऊँचाई लीजिये।। ॐ ह्रीं चतुर्हस्तानाम् एकं धनुर्मत्वा मध्यभूमितः पंचसहस्रधनुः प्रमाणोच्चे समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। दोइ ओर सिवानन के बनी सरस वेदी सुन्दर सोहनी। धनुष साढ़े सातसै देखिये गिन मुटाई नैनन पेखिये। ऊँ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य सार्धसप्तशतधनुः स्थूल-सोपान-वेदिकासंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। बनी बैठक सुन्दर सोहिनी परमवेदी ऊपर मोहिनी। सरस शोभाकर सुविशाल जू, खचित-मणिमय-मोती-माल जू।। ऊँ ह्रीं वेदिकायाः नानाविध-रचनासम्पन्ने पीठसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा। 1192
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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