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________________ पल-सों न पलक लागें जिनेश नख-केश न कबहूँ बढ़ें लेश। केवल अतिशय दश भए सार चौदह देवन - रचियो विचार जय मागधि भाषा प्रथम गाव सब जीवन के मैत्री भाव। सब ऋतु फल-फूल फले अपार दरपन-सम भूमि भई निहार ।। सब जीव परम आनन्दकार जय पवन गन्ध-संयुक्त सार । कण्टक अरु धूल पड़े न तीर गन्धोदक बरषा होत धीर || जय दो सौ पच्चिस कमल लाय सुर- रचित बहुत आनन्द पाय। धानादि अठारह जाति-भेद फल-फूल सहित राजत उछेद।। निर्मल आकाश लसे अपार दश दिशा सु निरमल दिपे सार। जय-जय-जय देव करें अलाप भवि जीव चले आवत सु आप।। जय धर्मचक्र आगे सु जाय देवनकृत चौदह कहे गाय । जय प्रातिहार्य वसु सुनहु सार भवि - जीवन को आनन्दकार।। जय वृक्ष अशोक दिपै अनूप यज वृष्टि - कुसुम की होय भूप । जय बानी बरसे मेघ-धार जय चौंसठ चमर दुरें सु सार।। जय सिंहासन अति जगमगात भामण्डल भव दीखत जु सात जय दुंदुभि-शब्द बजै सु घोर जय छत्र तीन शोभित जोर।। जय प्रातिहार्य वसु कहे गाय सब नन्त चतुष्टय सुनो भाय। श्रीजिन के ज्ञान अनन्तज्ञान दर्शन भी तैसा हो बखान।। प्रभु सुख अनन्त धारें सुधीर वीरज सु अनन्ती लहें वीर। दश-दश चौदह वसु चार जानि छयालीस जिनेश्वर गुन बखानि ।। ऐसे गुन- कर शोभित विशाल तिनको पूजत यह 'कुँवरलाल'। सो करो कृपा हम पर विशाल भवसागर पार करो दयाल। 1190
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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