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________________ तंदुल शशि-सम उज्ज्वल लीनें, दीने पुंज सुहाई। नाचत गावत भगति करत ही, तुरित अखैपद पाई।। राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा। यातें शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा।। 3॥ ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। पारिजात मंदार सुमन, संतान जनित महकाई। मारसुभट-मद-भंजन-कारन, जजहुँ तुम्हें शिरनाई।। राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा। याते शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा।। 4।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पंनिर्वपामीति स्वाहा। फेनी गोझा मोदन मोदक, आदिक सद्य उपाई। सो लै छुधा-निवारन-कारन जजहुँ चरन लवलाई।। राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा। यातें शरन गही जगपतिजी. वेग हरो भवपीरा।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। तिमिरमोह उरमंदिर मेरे, छाय रह्यो दुखदाई। तासु नाश कारन को दीपक, अद्भुत-जोति जगाई।। राग-दोष-मद-मोह हरनको, तुम ही हो वरवीरा। या शरन गही जगपतिजी, वेग हरो भवपीरा।। 6।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 1155
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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