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________________ जय चिदानन्द आनन्दकन्द, गुनवृन्द सुर ध्यावत मुनि अमन्द। तुम जीवनिके बिनु हेतु मित्त, तुम ही हो जग में जिन पवित्त।।3।। तुम समवसारण में तत्त्वसार, उपदेश दियो है अति उदार। ताकों जे भवि निजहेत चित्त, धारे ते पावें मोच्छ-वित्त।।4।। मैं तुम मुख देखत आज पर्म, पायो निज आतमरूप धर्म। मोकों अब भवदधितें निकार, निरभय-पद दीजे परमसार।।5।। तुम-सम मेरो जगमें न कोय, तुमही ते सब विधि काज होय। तुम दया धुरन्धर धीर वीर, मेटो जगजनकी सकल पीर।6।। तुम नीति-निपुन विन रागरोष, शिव-मग दरसावतु हो अदोष। तुम्हरे ही नाम-तने प्रभाव, जगजीव लहें शिव-दिव-सुराव।।7।। ता” मैं तुमरी शरण आय, यह अरज करतु हों शीश नाय। भव-बाधा मेरी मेट मेट, शिव-राधासों करि भेंट-भेंट।।8।। __जंजाल जगत को चूर चूर, आनन्द-अनूपम पूर पूर।। मति देर करो सुनि अरज एव, हे दीनदयाल जिनेश देव।।9।। मोको शरना नहिं और ठौर, यह निहचै जानों सगुन-मौर। 'वृन्दावन' वंदत प्रीति लाय, सब विघन मेट हे धरम-राय।।10। (छन्द - घत्तानंद) जय श्रीजिनधर्मं, शिवहितपर्मं, श्रीजिनधर्मं उपदेशा। तुम दयाधुरंधर विनतपुरन्दर, कर उर-मन्दर परवेशा।।11। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। 1135
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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