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________________ ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार- विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 61 यह गंध चूरि दशांग सुन्दर, धूम्रध्वजमें खेयहों। वसुकर्म-भर्म जराय तुम ढिग, निज-सुधातम वेयहों।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों। शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म - दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। 7। रसथक्व पक्व सुभक्व चक्व, सुहावने मृदु पावने। फलसार-वृन्द अमंद ऐसो, ल्याय पूज रचावने। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों। शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो ।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।8। शुचि नीर चन्दन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरों। अरु धूप फल जुत अरघ करि, कर - जोर - जुग विनती करों ।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों। शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक (छंद सुन्दरी तथा द्रुतविलंबित) असित कार्तिक एकम भावनो, गरभको दिन सो गिन पावनो । किय सची तित चर्चन चावसों, हम जजें इत आनंद भावसों ॥। ह्रीं कार्तिककृष्णा-प्रतिपदायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय 1127
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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