SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (छन्द घत्तानन्द) शीतल जिन ध्याऊँ भगति बढ़ाऊँ, ज्यों रतनत्रयनिधि पाऊँ। भवदंद नशाऊँ शिवथल जाऊँ, फेर न भव-वन में आऊँ।।18।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय महायँ निर्वपामीति स्वाहा। छन्द मालिनी दिढरथसुत श्रीमान् पंचकल्याणकधारी, तिनपद-जुगपद्मं, जो जजै भक्तिधारी। सहजसुख धनधान्य, दीर्घ सौभाग्य पावे, अनुक्रम अरि दाहै, मोक्ष को सो सिधावै।। इत्याशीर्वादः, पुष्पांजलिं क्षिपेत् । श्री श्रेयांसनाथजिन-पूजा छन्द रूपमाला तथा हरिगीता विमल-नृप विमला-सुअन, श्रेयांसनाथ जिनन्द। सिंहपुर जन्मे सकल हरि, पूजि धरि आनन्द।। भव-बंध ध्वंसनि-हेत लखि मैं शरन आयो येव। थापौं चरनजुग उरकमल में, जजन-कारन देव।। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम्) ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। (स्थापनम्) ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। (सन्निधिकरणम्) 1108
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy