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________________ आनि पितुसदन शिशु सौंपि हरि थल गयो, बालवय तरुन लहि राजसुख भोगि यो। भोग तज जोग गहि, चार अरि को हने, धारि केवल परम धरम दुइविधि भने।16। नाशि अरि शेष शिवथानवासी भये, ज्ञानदृग शर्म वीरज अनन्ते लये। सो जगतराज यह अरज उर धारियो, धरमके नन्दको भव उदधि तारियो ।17। (घत्ता) जय करुणाधारी, शिवहितकारी तारन तरन जिहाजा हो । सेवत नित वन्दे मनआनंदे, भवभय मेटन काजा हो । 18। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामति स्वाहा।। श्रीसुपार्श्व पदजुगल जो, जजे पढ़े यह पाठ। अनुमोदे सो चतुर नर, आनन्द ठाठ।। इत्याशीर्वादः, पुष्पांजलिं क्षिपेत् । 1092
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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