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________________ (अथाष्टकम्) अडिल्ल कनक कलश में छीर, उदक निरमलहि ले। इन्द्र जजें हम शकति, नाहिं वह जल मिल। तृषा-निवारण-हेतु, जजों हितकरि अदा । कैलाशादिक थान, मुकति मारग सदा।। ऊँ ह्रीं कैलाशादिकनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः जलम् निर्वपामीति स्वाहा। मलयागिरि केशर कुंकुम, जल सोहिलो। परम सुरभि लहि भँवर, करहिं तापर किलो।। भव आताप निवारण, कारण आनदा । कैलाशादिक थान, मुकति मारग सदा।। ऊँ ह्रीं कैलाशादिकनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा। शशि मोती सम शालि, अखंडित वीन के परम सुगन्धी उज्ज्वल, उत्सव चीन के।। अक्षयपद के हित जजों, जिन चरणदा। कैलाशादिक थान, ,मुकति मारग सदा।। ऊँ ह्रीं कैलाशादिकनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः अक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा। सुमनस्वर्णमय सुरतरु, के सम ल्यायके || विविध प्रकार बनाय, सुगन्ध मिलायकें।। मन्मथदाह निवार जजों, जिन पुण्यदा। कैलाशादिक थान, मुकति मारग सदा।। ऊँ ह्रीं कैलाशादिकनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा। बाबरपुरी पिराक, तुरत घृत में कढ़े। बहुत सुगन्ध लखात, हृदय आनन्द बढ़े।। क्षुधानिवारण कंचन, थार सम्हारदा। कैलाशादिक थान, मुकति मारग सदा।। ऊँ ह्रीं कैलाशादिकनिर्वाणक्षेत्रेभ्यः नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा। 109
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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