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________________ पौष-सुदी तिथि ग्यारस सुहायो, त्रिभुवनभानु सु केवल जायो। इंद-फनिंद जतित आई, हम पद पूजत प्रीति लगाई। ॐ ह्रीं पौषशुक्ला-एकादशीदिनेज्ञानमंगल-मंडिताय श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पंचमि-चैत-सुदी निरवाना, निज-गुनराज लियो भगवाना। इंद-फनिंद्र तित आई, हम पद पूजत हैं गुनगाई। ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ल-पंचमीदिननिर्वाणमंगल-मंडिताय श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (दोहा) अष्ट-दुष्ट को नष्ट करि, इष्ट-मिष्ट निज पाय। शिष्ट-धर्म भाख्यो हमें, पुष्ट करो जिनराय।।1।। (छन्द पद्धरि १६ मात्रा) जय अजितदेव तब गुण अपार, पै कहूँ कछुक लघु-बुद्धि धार। दश जनमत-अतिशय बल-अनंत, शुभ-लच्छन मधुर-वचन भनंत।।2।। संहनन-प्रथम मलरहित-देह, तन-सौरभ शोणित-स्वेत जेह। वपु स्वेद-बिना महरूप धार, समचतुर धरें संठान चार॥3॥ दश केवल गमन-अकाशदेव, सुरभिच्छ रहै योजन-सतेव। उपसर्ग-रहित जिन-तन सु होय, सब जीव रहित-बाधा सु जोय।।4।। मुख चारि सरब-विद्या-अधीश, कवला-अहार-सुवर्जित गरीश। छाया-बिनु नख-कच बदै नाहिं, उन्मेश टमक नहिं भ्रकुटि-नाहिं।।5।। सुर-कृत दश-चार करों बखान, सब जीव-मित्रता-भाव जान। कंटक-बिन दर्पणवत् सुभूमि, सब धान्य वृच्छ फल रहै झूमि।।6।। 1060
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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