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________________ (गीतिका छन्द) लेश्याशुकल गजराज चढ़ि के, भूप अनुप्रेक्षा ढुके। धाय धर्म-कृपाण गहि अरि, महि-सेना पर झुके।। उत्कृष्ट जिन परिणाम, कटकतनी सुरक्षा कारनै। वर ज्ञानरूप प्रधान, अग्रेसर कियो जगतारने।। (अडिल्ल) अति विशुद्ध परिणाम सैन्यपति छाइयो। रागादिक अरि हनन प्रबल उद्यम कियो।। ध्यान जतन कर मूल प्रगट कर तन्त्र के। करे चलाचल वीर जिनेश्वर सत्र के।। अधःकरन के भाव जो प्रथमहिं भाय के। हो परिणाम न अन्य क्षपक दिश जाय के।। शुकल ध्यान असि प्रथम ध्याय ता करम ले। प्रबलमोह करि घात, जाय बारम थले।। (गीतिका छन्द) ता थलैं दूजे शुकल बल त्रय, घातिया हनि जय लयो। चढ़ि तेर में गुणस्थान श्रीजिन, समोसरन विभो ठयो।। रचि कोट वेदी भूमि पर मध, थंम तूपादिक(?)जहीं। जोजन प्रमान जु सोभगी, निरवार पद पूजत तहीं।। ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां ज्ञानकल्याणकप्राप्ताय महावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। करत विहार जिनेश भविक उपदेशते। सकल संघ कर युक्त चरम तीर्थेश ते।। नाना विध अतिशय कर युक्त प्रभू तहाँ। आनि विराजे विपुलाचल पर्वत जहाँ।। जहँ दिव्यधुनि प्रतिशब्द जय जय सभामण्डप भवन में। धर्मोपदेश सो आइयो, तिन निकट निर्वानक समै।। तब सुर असुर इन्द्र करि, अर्चित सवकार जानकें। 103
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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