SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1021
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जय अंजन सीता जानि नारि, जय पावन धर्म हिय विचरि । इस विधि अनकों भाविक राज, वृषधर लहै है मुक्ति राज। जिन धर्म तनी महिमा महान्, सूरज से प्रभु नहीं होत गान। निष्करण बन्धुसु धर्म एक, भवि ध्यावे दुरित न रहे नेक घत्ता जय जय जिन धर्म है अति परर्मं नाश्क कर्मं ध्यावत है। हम महिमागावें सुख उपजावे मुक्ति रमा को पावत है। ॐ ह्रीं श्री स्याद्वाद जिन धर्मेभ्योऽघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।16।। अडिल्ल दश लक्षण अरु रत्नत्रय सुखदाय जी । भविजन पूजत धर्म अहिंसा पाय जी।। सुख संपत बढ़ जाय, दुरित नश जाय जी । शिखरमणी भर्तार बने भवि राय जी ।। इत्याशीर्वादः जिनवाणी पूजन श्रीअरहन्त परमगुरु सुख से आई हो सब भरम मिटाय। सत्यारथ पथ को दर्शाकर सम्यग्ज्ञान की ज्योति जगाय।। वह जिनवाणी आ उर मेरे वास करो मम कर्म खपाय । आठों विधि से पूजूं माता मन वच तन इक भाव लगाय।। ऊँ ह्रीं श्री जिन मुखोत्पन्न द्वादशांग श्रुत देवी अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्री जिन मुखोत्पन्न द्वादशांग श्रुत देवी अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्री जिन मुखोत्पन्न द्वादशांग श्रुत देवी अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। 1021
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy