SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1011
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन चारित्रनग से गिरता है यदि कोई। ज्ञानी होकर थिर नहीं करता समक्ति मलिन सहोई।। धर्म बन्धु जन गिरते जन को फिर से थपित करते। सम्यग्दर्शन शुद्ध उन्हीं का शिवरमणी को वरते।। ऊँ ह्रीं अस्थि तिकरण मल दोष रहितं स्थितिकरण गुणोपेतं सम्यग्दर्शन मार्गेभ्योऽध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।6। धर्मरु धार्मिक सज्जन ऊपर प्रीति नहीं जो करते। सम्यग्दर्शन दोष उनका भवद्धि नाहीं तारते।। करते धार्मिक बन्धुजनों में प्रीति महागुण धारी। बत्सल अंग कहे उसको गण पूज महा दखहारी।। ऊँ ह्रीं अवात्सल्य मलदोषरहित वात्सल्य गुणोपेतं सम्यग्दर्शन जिनधर्मेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा॥7॥ ज्ञानी होकर मिथ्यातम को दूर नहीं जो करते। नहीं बढ़ावे जैन धर्म का समकित दोष सुहारते।। जैसे तैसे प्रसरित तम को नश कर धर्म बढ़ावे। सम्यग्दर्शन होता शुद्ध वसु विध द्रव्य चढ़ावे।। ऊँ ह्रीं अप्रभावनामलदोष रहित प्रभावनांग शुणोपेतं सम्यग्दर्शन मार्गेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।8। अष्ट मद - दोहे करत नहीं मद को कभी पिता भूप हो जाय। मदकरता दर्शन मलिन कहत जिनेश्वर राय।। ॐ ह्रीं पितृभूपमद मलदोष रहित सम्यग्दर्शन धर्मेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।9॥ 1011
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy