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________________ ऊँ ह्रीं श्री अष्टविंशति मूल गुण धारक साधु देवेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।। दोहा सर्व साधु परमेष्ठि नमि तारण मरण जहाज। मन वच तन से भजत हूं होय सफल मम काज। इत्याशीर्वादः जिनधर्म पूजा परम पूज्य है धर्म अहिंसा जीवों को वह अति सुखदाय। स्याद्वाद पद महा विभूषित रत्नत्रय का है समुदाय।। संस्मृति का पथ भ्रमण मिटाकर अविनाशी ही पद सुखदाय। इनको पूजे जो भवि प्राणी थापन कर उरमे उमगाय।। ॐ ह्रीं श्री स्याद्वाद जिन धर्म अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्री स्याद्वाद जिन धर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्री स्याद्वाद जिन धर्म अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापनम्। अथाष्टक् (सखी) (पाईता) शीतल मिष्ट सुवासित चंगा, धारा देय महा जल गंगा। जन्म मृत्यु जरा नश जाई। जिनवर धर्म यजो रे भाई।। ऊँ ह्रीं श्री अरहन्तदेवकथित स्याद्वाद जिन धर्मेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।। बावन चन्दन सुरभित लाया केशर संघ में घिसी हुलसाया। भव्वाताप नशे दख दायी, जिनवर धर्म यजो रे भाई।। ऊँ ह्रीं श्री अरहन्तदेवकथित स्याद्वाद जिन धर्मेभ्यः संसारताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।2। 1005
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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