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________________ सरस्वती माता की आरती आरति करो रे, जिनवाणी माता सरस्वती की आरति करो रे। द्वादशांगमय श्रुतदेवी का श्रेष्ठ तिलक सम्यग्दर्शन। वस्त्र धारतीं चारित के चौदह पूरब के आभूषण।। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, आकार सहित उन श्रुतदेवी की आरति करो रे।।१।। इनके आराधन से ज्ञानावरण कर्म क्षय होता है। मति श्रुत ज्ञान प्राप्त होकर, अज्ञान स्वयं व्यय होता है।। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, तीर्थंकर प्रभु की दिव्यध्वनि की आरति करो रे ॥२॥ मनपर्ययज्ञानी गणधर भी, श्रुत आराधन करते हैं। तभी घातिया कर्म नाशकर, केवलज्ञानी बनते हैं।। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, कैवल्यमयी शीतलवाणी की आरति करो रे ॥३॥ मुनि के अंग पूर्व की महिमा, तो आगम में मिलती है। सम्यग्दृष्टि आर्यिका ग्यारह, अंगों को पढ़ सकती है।। __ आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, सौन्दर्यवती माँ सरस्वती की आरति करो रे।।४।। शुभ्र वस्त्र धारिणी, हंसवाहिनी, सरस्वती माता हैं। ज्ञान किरणयुत श्रुतमाता ‘चन्दनामती' सुखदाता है।। आरति करो, आरति करो, आरति करो रे, श्रुतज्ञान समन्वित सरस्वती की आरति करो रे ॥५।। 162
SR No.009245
Book TitleJain Arti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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