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________________ सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की आरती मैं तो आरती उतारूँ रे, सम्मेदगिरिवर की, जय जय सम्मेदशिखर, जय जय जय-२॥टेक.॥ कहा शाश्वत है यह गिरिराज, अनादी कालों से-अनादी कालों से। मुक्ति वरते यहीं से जिनराज, अनादी कालों से-अनादी कालों से।। पावन है, पूज्य है, गिरिवर की धूल है, सिर पे चढ़ाओ जी, ___ हो धूली सिर पे चढ़ाओ जी।।मैं तो......॥१॥ इस युग के जिनेश्वर बीस, मुक्त हुए यहीं से—मुक्त हुए यहीं से। बने सिद्धशिला के ईश, नमन करूँ रूचि से-नमन करूं रूचि से।। आरती का थाल ले, भक्ति सुमन माल ले, सबको बुलाऊँ मैं, हो भक्तों की टोली बुलाऊँ मैं।।मैं तो......॥२॥ इक बार भी जो वन्दना, करे इस गिरिवर की—करे इस गिरिवर की। उनको मिलती न उस भव से, नरक अरु पशुगति भी-नरक अरु पशुगति भी।। मैं भी इसी भाव से, शुभ गती की चाव से, भक्ती रचाऊँ रे, ____ हो गिरि पर चढ़ करके जाऊँ रे।।मैं तो.......॥३॥ सांवरिया का है चमत्कार, सम्मेदाचल में—सम्मेदाचल में। पारस पारस की ही है पुकार, आज भी मधुवन में-आज भी मधुवन में।। "चंदनामति” भक्ति में, आज भी शक्ति है, उसमें ही रम जाओ रे, हो गिरि की आरति का फल पाओ रे।मैं तो......॥४॥ 161
SR No.009245
Book TitleJain Arti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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