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________________ 85 धवला पुस्तक 3 अवहारवड् ढिरूवाणवहारादो हु लद्धअवहारो। रूवहिणो हाणिए होदि हु वड्ढीए विवरीदो।।24।। भागहार में उसी के वृद्धिरूप अंश के रहने पर भाग देने से जो लब्ध भागहार (हर) आता है, वह हानि में रूपाधिक और वृद्धि में इससे विपरीत अर्थात एक कम होता है।।24।। अवहार विसेसेण य छिण्णवहारादु लद्धरूवा जे। रूवाहियाऊणा वि य अवहारा हाणिवड्ढीण।।25।। भागहार विशेष से भागहार को छिन्न अर्थात् भाजित करने पर जो संख्या लब्ध आती है. उसे रूपाधिक अथवा रूपन्यून कर देने पर वह क्रम से हानि और वृद्धि में भागहार होता है।।25।। लद्धविसे सच्छिण्ण लद्धं रूवाहिऊणयं चावि। अवहारहाणिवड्ढीणवहारो सो मुणेयव्वो।।26।। लब्ध विशेष से लब्ध को छिन्न अर्थात् भाजित करने पर जो संख्या उत्पन्न हो, उसे एक अधिक अथवा एक कम कर देने पर वे दोनों क्रम से भागहार की हानि और वृद्धि के भागहार होते हैं।।26।। लद्धतरसंगुणिदे अवहारे भज्जमाणरासिम्हि। पक्खित्ते उप्पज्जइ लद्धस्सहियस्स जो रासी।।27।। जो लब्ध राशियों के अन्तर से भागहार को गुणित करके और इससे जो उत्पन्न हो, उसे भज्यमान राशि में मिला देने पर अधिक लब्ध की जो भज्यमान राशि होगी वह उत्पन्न होती है।।27।। हारान्तरहतहाराल्लब्धो न हतस्य पूर्वलब्धस्य। हारहतभाज्यशेषः स चान्तरं हानिवृद्धी स्तः।।28।। हारान्तर से अर्थात् हार के एक खंड से हार को अपहत करके जो लब्ध आवे, उससे पूर्व लब्ध को गुणित करने पर उत्पन्न हुई राशि का
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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