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________________ धवला पुस्तक 2 73 साकार उपयोग का स्वरूप मदिसुदओहिमणेहि य, सग सग विसये विसेसविण्णाणं। अंतोमुहुत्तकालं, उवजोगो सो दु सायारो।।229।। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान के द्वारा अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त अपने-अपने विषय का जो विशेष ज्ञान होता है, उसे साकार उपयोग कहते हैं।।229।। निराकार उपयोग का स्वरूप इंदियमणोहिणा वा, अत्थे अविसेसिदूण जं गहणं। अंतोमुहुत्तकालं, उवजोगो सो अणायारो।।230।। इन्द्रिय, मन और अवधि के द्वारा अन्तमुहूर्त काल पर्यन्त पदार्थों की विशेषता किये बिना जो ग्रहण होता है, उसे निराकार उपयोग कहते हैं।2300 केवली के युगपत् उपयोग सागारमणागार के वलिणं युगवदेव उवओगे। सादी अणंतकालो पच्चक्खो सव्वभावगदो।।231।। केवलियों का साकार और अनाकार उपयोग एकसाथ होता है। वह सादि होकर भी अनन्त काल तक रहने वाला होता है और वह प्रत्यक्ष सब पदार्थों को ग्रहण करने वाला होता है।।231।। जीवसमास का लक्षण जेहिं अणेया जीवा, णज्जंते बहुविहा वि तज्जादी। ते पुण संगहिदत्था, जीवसमासात्ति विण्णेया।।232।। जिनके द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक प्रकार की जातियाँ मानी जाती हैं, अनेक अर्थों के संग्रह करने वाले उन धर्मों को जीवसमास
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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