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________________ 51 धवला पुस्तक 1 योग को मृषामनोयोग कहते हैं।।156।। असत्यमृषा मनोयोग ण य सच्च-मोस-जुत्तो जो दु मणो सो असच्चमोसमणो। जो जोगो जेण हवे असच्चमोसो दु मणजोगो।।157।। जो मन सत्य और मृषा से युक्त नहीं होता है उसको असत्यमृषामन कहते हैं और उससे जो योग अर्थात् प्रयत्नविशेष होता है उसे असत्यमृषामनोयोग कहते हैं।।157।। सत्य, मृषा एवं उभय वचन योग दसविह-सच्चे वयणे जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगी। तव्विवरीदो मोसो जाणुभयं सच्चमोसं ति।।158।। दश प्रकार के सत्यवचन में वचनवर्गणा के निमित्त से जो योग होता है उसे सत्यवचन योग कहते हैं। उससे विपरीत योग को मृषावचनयोग कहते हैं। सत्यमृषारूप वचन योग को उभयवचनयोग कहते हैं।।158।। असत्यमृषा वचनयोग जो णेव सच्च-मोसो तं जाण असच्चमोसवचिजोग। अमणाणं जा भासा सण्णीणामंतणीयादी।।159।। जो न तो सत्यरूप है और न मृषारूप ही है वह असत्यमृषावचनयोग है। असंज्ञी जीवों की भाषा और संज्ञी जीवों की आमन्त्रणी आदि भाषाएं इसके उदाहरण हैं।।159।। औदारिक काययोग पुरुमहमुदारुरालं एयट्ठो तं विजाण तम्हि भवं। ओरालियं ति वृत्तं ओरालियकायजोगो सो।।160।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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