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________________ धवला पुस्तक 1 39 प्रमाद के भेद विकहा तहा कसाया इंदिय-णिद्दा तहेव पणयो य। चदु-चदु-पणमेगगं होंति पमादा य पण्णरसा।।114।। स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और अवनिपालकथा ये चार विकथाएं, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और प्रणय इस प्रकार प्रमाद पन्द्रह प्रकार का होता है।।114।। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान णट्ठासेस-पमाओ वय-गुण-सीलोलि-मंडिओ गाणी। अणुवसओ अक्खवओ झाण-णिलीणो हु अपमत्तो।।115॥ जिसके व्यक्त और अव्यक्त सभी प्रकार के प्रमाद नष्ट हो गये हैं, जो व्रत, गुण और शीलों से मण्डित हैं, जो निरन्तर आत्मा और शरीर के भेदविज्ञान से युक्त हैं, जो उपशम और क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ नहीं हुए हैं और जो ध्यान में लवलीन हैं, उन्हें अप्रमत्तसंयत कहते हैं।।115।। अपूर्वकरण गुणस्थान भिण्ण-समय-ट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वदा सरिसो। करणेहि एक्क-समय-ट्ठिएहि सरिसो विसरिसो य।।116।। अपूर्वकरण गुणस्थान में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों की अपेक्षा कभी भी सदृश्यता नहीं पाई जाती है, किन्तु एक समयवर्ती जीवों के परिणामों की अपेक्षा सदृशता और विदृशता दोनों ही पाई जाती है।।116।। एदम्हि गुणट्ठाणे विसरिस-समय-ट्ठिएहि जीवेहि। पुव्वमपत्ता जम्हा होति अपुव्वा हु परिणामा।।117।। इस गुणस्थान में विसदृश अर्थात् भिन्न-भिन्न समय में रहने वाले
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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