SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धवला पुस्तक 1 33 सिद्धतणस्सं जोग्गा जे जीवा ते जति भवसिद्धा।। ण उ मल-विगमे णियमो ताणं कणगोवलाणमिव।।95।। जो जीव सिद्धत्व अर्थात् सर्व कर्म से रहित मुक्तिरूप अवस्था पाने के योग्य है, उन्हें भव्यसिद्ध कहते हैं, किन्तु उनके कनकोपल अर्थात् स्वभाषण के समान मल का नाश होने में नियम नहीं है। सम्यक्त्व का स्वरूप छ-प्पंच-णव-विहाणं अत्थाणं जिणवरीवइट्ठाणं। आणाए अहिगमेण सद्दहणं होइ सम्मत्तं।।96।। जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदेश दिये गये छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय और नव पदार्थों का आज्ञा अर्थात् आप्तवचन के आश्रय से अथवा अधिगम अर्थात् प्रमाण, नय, निक्षेप और निरुक्तिरूप अनुयोगद्वारों से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं।।96।। संज्ञी एवं असंज्ञी का स्वरूप सिक्खा-किरियुवदेसालावग्गाही मणो वलंबेण। जो जीवो जो सण्णी तव्विवरीदोअसणी दु।।97।। जो जीव मन में अवलम्बन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है, उसे संज्ञी कहते हैं और जो इन शिक्षा आदि को ग्रहण नहीं कर सकता है, उसको असंज्ञी कहते हैं।।97।। आहारक का स्वरूप आहरदि सरीराणं तिण्हं एगदर-वग्गणाओ जं। भासा-मणस्स णियंद तम्हा आहारओ भणिओ।।98।। औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों में से उदय को प्राप्त हुए किसी एक शरीर के योग्य तथा भाषा और मन के योग्य पुद्गल
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy