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________________ 261 सुगन्धित, धवल और समृद्ध पुष्पों द्वारा जिनके चरणों की पूजा की गयी है, उन पुष्पदन्त जिनेन्द्र को नमस्कार करके मैं प्रयत्नपूर्वक संक्षेप में कर्मस्थिति अनुयोगद्वार का कथन करता हूँ।।1।। सीयलजिणमहिवंदिय तिहुवणजणीसीयलं पयत्तेण। वोच्छं समासदो हं जहागम पच्छिमक्खंध।।1।। __ तीन लोक के जीवों को शीतल करने वाले ऐसे शीतल जिनेन्द्र की वन्दना करके मैं संक्षेप से आगम के अनुसार पश्चिम स्कन्ध अनुयोगद्वार की प्ररूपणा करता हूँ।।1।। णमिऊण वड्ढमाणं अणंतणाणणुवट्टमाणं मिसिं। वोच्छामि अप्पबहुअं अणुयोगं बुद्धिसारेण।।1।। अनन्तज्ञान से अनुवर्तमान वर्धमान ऋषि को नमस्कार करके बुद्धि के अनुसार अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार की प्ररूपणा करता हूँ।।1।। आहारे परिभोयं परिग्गहग्गय तहा च परिणामा। आदेसपमाणत्ता पुण अट्ठविहा पोग्गला अत्ता।।1।। आहार, परिभोग, परिग्रहगत तथा परिणाम स्वरूप से पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं, परन्तु आदेश प्रमाण की अपेक्षा (?) आठ प्रकार के पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं।।1।। अत्ता मवुति परिभोग परिगहणे तथा च परिणामे। आहारे गहणे पुण चउव्विहा पोग्गला अत्ता।।2।। ममत्व, परिभोग, परिग्रहण तथा परिणाम रूप से चार प्रकार के पुद्गल ग्रहण होते हैं तथा आहार ग्रहण में चार प्रकार के पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं।।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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