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________________ 253 धवला पुस्तक 15 कारण वेदनीय का सुख व दुख में निमित्त होना है। शेष कर्मों का हीनाधिक भाग उनकी स्थिति विशेष से है।।20-21।। एक्क य छक्केक्कारस दस सत्त चदुक्कमेक्कयं चेव। दोसु य बारस भंगा एक्कम्हि य होंति चत्तारि।।1।। दस, नौ, आठ, सात, छह, पाँच और चार प्रकृतियों के प्रवेशक के क्रम से एक, छह, ग्यारह, दस, सात, चार और एक (इतनी शलाकाओं से युक्त चौबीस) भंग, दो प्रकृतियों के प्रवेशक के बारह तथा एक प्रकृति के प्रवेशक के चार भंग होते हैं।।1।। सत्तादि दसुक्कस्सं मिच्छे सण-मिस्सए णउक्कसं। छादी य बारस भंगा एक्कम्हि य होति चत्तारि।।2।। पंचादि अट्ठणिहणा विरदाविरदे उदीरणट्ठाणा। एगादी तियरहिदा सत्तुक्कस्सा य विरदस्स।।3।। सात को आदि लेकर उत्कर्ष से दस (7, 8, 9, 10) प्रकृतियों तक के चार स्थान मिथ्यात्व गुणस्थान में होते हैं, अर्थात् इन चार स्थानों का स्वामी मिथ्यादृष्टि है। सात को आदि लेकर उत्कर्ष से नौ प्रकृतियों तक के तीन (7, 8, 9) स्थान सासादन और मिश्र गुणस्थान में होते हैं। छह प्रकृतियों को आदि लेकर उत्कर्ष से नौ तक के चार (6,7,8,9) स्थान अविरत सम्यग्दृष्टि के होते हैं। पाँच को आदि लेकर आठ प्रकृतियों तक के चार (5, 6, 7, 8) उदीरणास्थान विरताविरत (देशविरत) गुणस्थान में होते हैं। एक को आदि लेकर उत्कर्ष से त्रिप्रकृतिक स्थान से रहित सात प्रकृतियों तक के छह (1, 2, 4, 5, 6, 7) उदीरणास्थान संयत जीव के होते हैं। 2-3॥
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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