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________________ धवला पुस्तक 15 247 चार आनुपूर्वी प्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी हैं, ऐसा जिनेन्द्र देव के द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। नीच व उच्च गोत्रों का निबन्ध आत्मा में है। 4 ॥ दाणं तराइयं दाणे लाभे भोगे तहेव उवभोगे । गहणे होंति णिबद्धा विरियं जह केवलावरणं ।।5।। दानान्तराय दान के ग्रहण में, लाभान्तराय लाभ के ग्रहण में, भोगान्तराय भोग के ग्रहण में तथा उपभोगान्तराय उपभोग के ग्रहण में निबद्ध है। वीर्यान्तराय केवलज्ञानावरण के समान अनन्त द्रव्यों में निबद्ध है।।5।। असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥1॥ चूंकि असत् कार्य किया नहीं जा सकता है, उपादानों के साथ कार्य का सम्बन्ध रहता है, किसी एक कारण से सभी कार्यों की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, समर्थ कारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है तथा कार्य कारणस्वरूप ही है- उससे भिन्न सम्भव नहीं है। अतएव इन हेतुओं के द्वारा कारण व्यापार से पूर्व भी कार्य सत् ही है, यह सिद्ध है।।1।। एकान्त वादियों का निराकरण नित्यत्वे कान्तपक्षे ऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलं ।।2।। नित्य एकान्त पक्ष में भी पूर्व अवस्था (मृत्पिण्डादि) के परित्यागरूप और उत्तर अवस्था (घटादि) के ग्रहण रूप विक्रिया घटित नहीं होती। अतः कार्योत्पत्ति के पूर्व में ही कर्त्ता आदि कारकों का अभाव रहेगा और जब कारक ही न रहेंगे तब भला फिर प्रमाण (प्रभूति क्रिया का अतिशय साधक) और उसके फल ( अज्ञाननिवृत्ति) की सम्भावना कैसे की जा सकती है? अर्थात् उनका भी अभाव रहेगा ||2||
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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