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________________ धवला पुस्तक 14 239 निक्षेप का प्रयोजन अवगयणिवारणट्ठं पयदस्स परूवणाणिमित्तं च । संसयविणासणट्ठ तच्चत्थवधारणट्ठ च।।1।। प्रकृत का निरूपण करने के लिये कहा भी है- अप्रकृत अर्थ का निराकरण करने के लिये, प्रकृत अर्थ का कथन करने के लिये, संशय का विनाश करने के लिये और तत्त्वार्थ का निश्चय करने के लिये निक्षेप किया जाता है।।1।। समिति की विशेषता जियदु मरदु वा जीवो अयदाचारस्स णिच्छओ बंधो। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदीहि ।।2।। चाहे जीव जिए चाहे मरे, अयत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले जीव के नियम से बन्ध होता है, किन्तु जो जीव समिति पूर्वक प्रवृत्ति करता है उसके हिंसा हो जाने मात्र से बन्ध नहीं होता । 2 ।। सरवासे दुपदंते जह दढकवचो ण भिज्जहि सरेहि । तह समिदीहि ण लिंपइ साहू काएसु इरियंतो ॥। 3 ॥ सरों की वर्षा होने पर जिस प्रकार दृढ़ कवच वाला व्यक्ति सरों से नहीं भिदता है, उसी प्रकार षट्कायिक जीवों के मध्य में समिति पूर्वक गमन करने वाला साधु पाप से लिप्त नहीं होता है || 3 | जत्थेव चरइ बालो परिहारण्हू वि चरइ तत्थेव । बज्झइ सो पुण बालो परिहारण्हू वि मुंचइ सो ।।4।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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