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________________ धवला उद्धरण 222 पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खादं। णामादिभेयविहियं तिविहमहोलोगभागादि।।44।। खिदिवलयदीवसायरणयरविमाण भवणादिसंठाणं। वोमादिपडिट्ठाणं णिययं लोगट्ठिदिविहाणं।।45।। जिनदेव के द्वारा कहे गये छह द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, रहने का स्थान, भेद, प्रमाण तथा उनकी उत्पाद, स्थिति और व्यय आदि रूप पर्यायों का, पाँच अस्तिकायमय, अनादिनिधन, नामादि अनेक भेदरूप और अधोलोक आदि भाग रूप से तीन प्रकार के लोक का तथा पृथिवीलय, द्वीप, सागर, नगर, विमान, भवन आदि के संस्थान का एवं आकाश में प्रतिष्ठान, नियत और लोकस्थिति आदि भेद का चिन्तवन करे।।43-45।। उवजोगलक्खाणमणाइणिहणमत्थंतरं सरीदादो। जीवमरूविं कारिं भोइं च सयस्स कम्मस्स।।46।। तस्स य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं। वसयसयसावमीणं मोहाबत्तं महाभीम।।47।। णाणमयकण्णहारं वरचारित्तमयमहापोय। संसारसागरमणोरपारमसुहं विचिंतेज्जो।।48।। जीव उपयोग लक्षण वाला है, अनादिनिधन है, शरीर से भिन्न है, अरूपी है तथा अपने कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है। ऐसे उस जीव के कर्म से उत्पन्न हुआ जन्म-मरण आदि यही जल है, कषाय यही पाताल है, सैकडों व्यसनरूपी छोटे मत्स्य हैं, मोहरूपी आवर्त है और अत्यन्त भयंकर है, ज्ञानरूपी कर्णधार है और उत्कृष्ट चारित्रमय महापोत है। ऐसे इस अशुभ और अनादि अनन्त संसार का चिन्तवन करे।।46-48।। किं बहुसो सव्वं चि य जीवादिपयत्थवित्थरो वेयं। सव्वणयसमूहमयं ज्झायज्जो समयसब्भाव।।49।। बहुत कहने से क्या लाभ, यह जितना जीवादि पदार्थों का विस्तार
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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