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________________ धवला उद्धरण 220 हेदूदाहरणासंभवे य सरि-सुठुज्जाण बुज्झेज्जो। सव्वण्णुमयमवितत्थं तहाविहं चिंतए मदिम।।36।। मति की दुर्बलता होने से, अध्यात्म विद्या के जानकार आचार्यों का विरह होने से, ज्ञेय की गहनता होने से, ज्ञान को आवरण करने वाले कर्म की तीव्रता होने से और हेतु तथा उदाहरण सम्भव न होने से, नदी और सुखोद्यान आदि चिन्तवन करने योग्य स्थान में मतिमान् ध्याता 'सर्वज्ञप्रतिपादित मत सत्य है' ऐसा चिन्तवन करे।।35-35।। जिनवचनों की प्रामाणिकता अणुवगयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जयप्पवरा। जियरायदोसमोहा ण अण्णहावाइणो तेण।।37।। यतः जग में श्रेष्ठ जिन भगवान्, जो उनको नहीं प्राप्त हुए ऐसे अन्य जीवों का भी अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं और उन्होंने राग, द्वेष और मोह पर विजय प्राप्त कर ली है, इसलिये वे अन्यथावादी नहीं हो सकते।।37।। आज्ञा विचय ध्यान पंचत्थिकायछज्जीवकाइए कालदव्वमणे य। आणागेज्झे भावे आणाविचएण विचिणादि।।38।। पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, काल द्रव्य तथा इस प्रकार आज्ञाग्राह्य अन्य जितने पदार्थ हैं, उनका यह आज्ञाविचय ध्यान के द्वारा चिन्तवन करता है।।38।। अपाय विचय ध्यान रागहो सकसायासवादिकिरियासु वट्टमाणाण। इहपरलो गावाए ज्झाएज्जो वज्जपरिवज्जी।।39।। पाप का त्याग करने वाला साधु राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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