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________________ धवला पुस्तक 13 217 विसमं हि समारोहइ दिढदव्वालंबणो जहा पुरिसो। सुत्तादिकयालंबो तह झाणवरं समारुहइ।।22।। जिस प्रकार कोई पुरुष नसैनी आदि दृढ़ द्रव्य के आलम्बन से विषम भूमि पर भी आरोहण करता है उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि के आलम्बन से उत्तम ध्यान को प्राप्त होता है।।22।। ध्यान की अर्हता पुव्वकयब्भासो भावणाहि ज्झाणस्स जोग्गदमुवेदि। ताओ य णाण-दंसण-चरित्त-वेरग्गजणियाओ।।23।। जिसने पहले उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यान की योग्यता को प्राप्त होता है और वे भावनायें ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य से उत्पन्न होती है।।23।। णाणे णिच्चब्भासो कुणइ मणोवारणं विसुद्धिं च। णाणगुण मुणियसारो तो ज्झायइ णिच्चलमईओ।।24।। जिसने ज्ञान का निरन्तर अभ्यास किया है वह पुरुष ही मनोनिग्रह और विशुद्धि को प्राप्त होता है, क्योंकि जिसने ज्ञानगुण के बल से सारभूत वस्तु को जान लिया है वही निश्चलमति हो ध्यान करता है।।24।। संकाइसल्लरहियो पसमत्थे यादिगुणगणोवईओ। होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए ज्झाणम्मि।।25।। जो शंका आदि शल्यों से रहित है और जो प्रशम तथा स्थैर्य आदि गुणगणों से उपचित है, वही दर्शनविशुद्धि के बल से ध्यान में असंमूढ मन वाला होता है।।25।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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