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________________ धवला उद्धरण 198 भगवान् के उससे संख्यातगुण क्षीण मोह के है, उससे संख्यात गुणा चारित्र मोहक्षपक के है इत्यादि।।16-17।। इन गाथा सूत्रों से जाना जाता है कि यहाँ असंख्यातगुणित श्रेणी रूप से कर्म निर्जरा होती है। कर्मों के भाग में हीनाधिकता आउवभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहिओ। आवरणमंतराए भागो मोहे वि अहिओ दु।।18।। सव्वुवरि वेयणीए भागो अहिओ दु कारणं किंतु। सुह-दुक्खकारणत्ता ट्ठिदिविसेसेण सेसाणं।।19।। आयुका भाग सबसे स्तोक है, नाम व गोत्र में समान होकर वह आयु की अपेक्षा अधिक है, उससे अधिक भाग आवरण अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय का है, इससे अधिक भाग मोहनीय है। सबसे अधिक भाग वेदनीय में है, इसका कारण उसका सुख-दुख में निमित्त होना है। शेष कर्मों के भाग की अधिकता उनकी अधिक स्थिति होने के कारण है।।18-19।। पढमिच्छ सलागगुणा तत्थादीवग्गणा चरिमसुद्धा। सेसेण चरिमहीणा सेसेगणं तमागास।।20।। प्रथम स्पर्धक की आदि वर्गणा को अभीष्ट स्पर्धकशलाकाओं से गणित करने पर वहाँ की आदिम वर्गणा का प्रमाण होता है। इसमें से पिछले स्पर्धक की चरम वर्गणा को कम करने पर जो शेष रहे उतनी क की प्रथम वर्गणा से पिछले स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा हीन है। अतः उस शेष में से एक कम करने पर अवशेष आकाश अर्थात् स्पर्धकों के अन्तर का प्रमाण होता है।।20।। जत्थिच्छसि सेसाणं आदीदो आदिवग्गणं णादु। जत्तो तत्थ सहेजें पढमादि अणंतरं जाणे।।21।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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