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________________ धवला पुस्तक 8 157 मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, पुरुषवेद, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, साधारण, अपर्याप्त, संज्वलन लोभ के बिना पन्द्रह कषाय और मनुष्य-गत्यानुपूर्वी, इन प्रकृतियों का बन्धव्युच्छेद और उदयव्युच्छेद साथ ही होता है।।8-9।।। पुन्वुत्तवसे साओ एगासीदी हवंति पयडीओ। ताण बंधुच्छे दो पुव्वं पच्छो दउच्छे दो।।10।। पूर्वोक्त प्रकृतियों से शेष जो इक्यासी प्रकृतियाँ रहती हैं उनका बन्ध व्युच्छेद पहिले और उदय व्युच्छेद पश्चात् होता है।।10।। __ परोदय वाली कर्म प्रकृतियों तित्थयर-णिरय-देवाउअ-चवेठब्वियछक्क दो वि आहारा। एक्कारसयडीणं बंधो हु परोदए वुत्तो।।11।। तीर्थकर, नरकायु, देवायु, वैक्रियिक शरीरादि छह और दोनों आहारक, इन ग्यारह प्रकृतियों का बन्ध परोदय से कहा गया है।।1।। स्वोदय परोदय बंध प्रकृतियाँ णाणंतराय-दंसण-थिरादिचउ तेजकम्मदे हाई। णिमिणं अगुरुवलहुअं वण्णचउक्कं च मिच्छत्त।।12।। सत्तावीसेदाओ बझंति हु सोदएण पयडीओ। सोदय परोदएण वि बज्झंतवसेसियाओ दु।।13।। पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, दर्शनावरण चार, स्थिर आदिक चार, तैजस और कार्मण शरीर, निर्माण, अगुरुलघुत्व, वर्णादिक चार और मिथ्यात्व ये सत्ताईस प्रकृतियां तो स्वोदय से बंधती हैं और शेष प्रकृतियां स्वोदय–परोदय से बंधती हैं।।12-13।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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