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________________ धवला उद्धरण 146 उन भंगों को क्रमशः गुणित करने पर सब भंगों की संख्या उत्पन्न होती है।।8। प्रस्तार का स्वरूप पढमं पयडिपमाणं कमेण णिक्खिविय उवरिमाणं च। पिंड पडि एक्कक्के णिक्खित्ते होदि पत्थारो।।9।। पहले प्रकृति प्रमाण को क्रम से रखकर अर्थात् उसकी एक-एक प्रकृति अलग-अलग रखकर एक-एक के ऊपर उपरिम प्रकृतियों के पिण्ड प्रमाण को रखने पर प्रस्तार होता है।।9।। णिक्खत्त विदियमेत्तं पढमं तस्सवरि बिदियमेक्केक्कं। पिंडं पडि णिक्खित्ते एवं सेसा वि कायव्वा।।10।। दूसरे प्रकृतिपिण्ड का जितना प्रमाण है उतने बार प्रथम पिंड को रखकर उसके ऊपर द्वितीय पिंड को एक-एक करके रखना चाहिये। (इस निक्षेप के योग को प्रथम समझ और अगले प्रकृतिपिंड को द्वितीय समझ तत्प्रमाण इस नये प्रथम निक्षेप को रखकर जोड़ना चाहिये।) आगे भी शेष प्रकृतिपिण्डों को इसी प्रक्रिया से रखना चाहिये।।10।। पढमक्खो अंतगओ आदिगदे संकमेदि बिदियक्खो। दोण्णि व गंतूणंतं आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ।।11।। प्रथम अक्ष अर्थात् प्रकृति विशेष जब अन्त तक पहुँचकर पुनः आदि स्थान पर आता है, तब दूसरा प्रकृतिस्थान भी संक्रमण कर जाता है अर्थात् अगली प्रकृति पर पहुँच जाता है और जब ये दोनों स्थान अन्त को पहुँचकर आदि को प्राप्त हो जाते हैं तब तृतीय अक्ष का भी संक्रमण होता है।।11॥ संगमाणेण विहत्ते सेसं लक्खित्तु पक्खिवे रूवं। लक्खिाज्जते सुद्धे एवं सव्वत्थ कायव्वं ।।12।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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