SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धवला पुस्तक 7 143 है, उसी कर्म के उदयक्षय से वह जीव जन्म और मरण से रहित हो जाता है।।8।। अंगोवंग-सरीरिदिय-मणुस्सासजो गणिप्फत्ती। जस्सोदएण सिद्धो तण्णामखएण असरीरो।।9।। जिस नाम कर्म के उदय से अंगोपांग, शरीर, इन्द्रिय, मन और उच्छ्वास से योग्य निष्पत्ति होती है, उसी नाम कर्म के क्षय से सिद्ध अशरीरी होते हैं।।9।। उच्चुच्च उच्च तह उच्चणीच णीचुच्च णीच णीचं। जस्सोदएण भावो णीचुच्चविवज्जिदो तस्स।।10।। जिस गोत्र कर्म के उदय से जीव उच्चोच्च, उच्चनीच, नीचोच्च, नीच या नीचनीच भाव को प्राप्त होता है, उसी गोत्र कर्म के क्षय से वह जीव नीच और ऊँच भावों से मुक्त होता है।।10।। विरियोवभोग-भोगे दाणे लाभे जदुदयदो विग्घं। पंचविहलद्धिजुत्तो तक्कम्मखया हवे सिद्धा।।11।। जिस अन्तराय कर्म के उदय से जीव के वीर्य, उपभोग, भोग, दान और लाभ में विघ्न उत्पन्न होता है, उसी कर्म के क्षय से सिद्ध पंचविध लब्धि से संयुक्त होते हैं।।1।। सिद्ध की वन्दना जयमंगलभूदाणं विमलाणं णाण-दसणमयाणं। तेलोक्कसे हराणं णमो सया सव्वसिद्धाणं।।12।। जो जग में मंगलभूत हैं, विमल हैं, ज्ञान-दर्शनमय हैं और त्रैलोक्य के शेखर रूप हैं ऐसे समस्त सिद्धों को मेरा सदा नमस्कार हो।।12।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy