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________________ [११३ प्रतिक्रमण-आवश्यक ] पदार्थ छो अने आपथी भिन्न समस्त पदार्थो असारभूत ज छे. अतः आपना आश्रयथी ज मने परम संतोष थयो छे. हवे आचार्यदेव 'पूर्ण साध्य' वर्णव छ : ५. अर्थ:-हे, जिनेश्वर ! समस्त लोकालोकने ओक साथे जाणनारुं आपनुं ज्ञान छे, समस्त लोकालोकने ओक साथे देखनारं आपनुं दर्शन छे, आपने अनंत सुख अने अनंत बळ छे तथा आपनी प्रभुता पण निर्मलतर छे, वळी आपनुं शरीर 'देदीप्यमान छे; तेथी जो योगीश्वरोओ सम्यग् योगरूप नेत्रद्वारा आपने प्राप्त करी लीधा तो तेओओ शुं न जाणी लीधुं ? शुं न देखी लीधुं ? तथा तेओओ शुं न प्राप्त करी लीधुं ? अर्थात् सर्व करी लीधुं. ___ भावार्थ :--जो योगीश्वरोजे पोतानी उत्कृष्ट योगदृष्टिथी अनंत गुणसंपन्न आपने जोई लीधा तो तेओओ सर्व देखी लीधुं, सर्व जाणी लीधुं, अने सर्व प्राप्त करी लीधुं. पूर्णनी प्राप्तिनुं प्रयोजन: ६. अर्थ:-हे जिनेन्द्र ! आपने ज हुं त्रण लोकना स्वामी मार्नु छु, आपने ज जिन अर्थात् अष्ट कर्मोना विजेता तथा मारा स्वामी मा छु, मात्र आपने ज भक्तिपूर्वक नमस्कार करुं छु. सदा आपनुं ज ध्यान करुं छु, आपनी ज सेवा अने स्तुति करुं छु अने केवळ आपने ज मारुं शरण मानुं छु. अधिक शुं कहेवू ? जो कंइ संसारमां प्राप्त थाओ तो ओ थाओ के आपना सिवाय अन्य कोइ पण साथे मारे प्रयोजन न रहे. भावार्थ:-हे भगवन् ! आप साथे ज मारे प्रयोजन रहे. अने १ श्री तीर्थंकर प्रभुनुं शरीर परम औदारिक अने स्फटिक रत्न जेवू निर्मळ होइने देदीप्यमान होय छे. २ श्रद्धा-ज्ञान.
SR No.009232
Book TitlePratikraman Aalochana Samayik Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Mumukshu Mahila Mandal
PublisherJain Mumukshu Mahila Mandal
Publication Year2002
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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