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________________ [ ५७ ] संयमनो नाश करनाने विविध प्रकारनी कुत्सित फयाओ। नि-इंद्रिय-जन्य ज्ञान। नि:पयाय-बीजांना मनना भावोंने ठीक टोक जागी शफे तेवू ज्ञान । हनाय- मोहने उत्पन्न करनार संस्काररुप कम-मोहनीय कर्मना ज तान स्वरुप जाणी टाकतो नथी । लोग-गोमूत्रादिक द्वारा पकावेलं मीठं-नमकं । शरीर वडे या इंद्रिय बडे जनो अनुभव थाय हे एवां मुख. या दुःखना साधनरूप कर्म । २|शिलश-हिमालय, हिमालयनी समान अकंप स्थिति । । द्वान-श्रद्धा स्थितंग्रज वीतराग आतपुरुपमा हुन विश्वास । स्वपरना कल्याणने माटे श्रम करनारी। आ शब्द जैन अने बौद्ध साधुनि माट व्यवहारमा प्रचलित छ । त-शास्त्रज्ञान। काम-विवेक-ज्ञान-पूर्वक दुःखसुखांदि सहन करवानी प्रवृत्ति या __ स्वतंत्र विचारथी सहन करवानी प्रवृत्ति । जुओ अकाम । चत्त-चित्तयुक्त-प्राणयुक्त जीवसहित कोई पण पदार्थ। देखना--मृत्यु पासे आवतां जे बडे कपायो घटे तेवां आंतर अने बाह्य तमाम निमित्तो उभा करवामां आवे ते क्रिया। नावरणीय-ज्ञानना आवरणरूप कर्मः ज्ञान, ज्ञानी या ज्ञानना साधनो प्रति पाद दुभाव रखवाथी ज्ञानावरणीय कर्म 'लागे छ ।
SR No.009220
Book TitleMahaveer Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherSastu Sahityavardhak Karyalay Mumbai
Publication Year
Total Pages182
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size3 MB
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