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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५. धर्म धर्म प्रेमियों! धर्म जीवनरुपी घड़ी की चाबी है-प्रेरणा है। कार में पेट्रोल, चुल्हे में ईधन, और शरीर में भोजन की तरह जीवन में धर्म अत्यन्त आवश्यक है। धर्म ही जीवन की एक मर्यादा है-व्यवस्था हैं । वही जीवन का सन्तुलन है-अनुशासन है। उसी से जीवन गतिशील बनता है। धर्म गुण है, आत्मा गुणी। गुणी से गुण अभिन्न होता है। आत्मा से धर्म भी अभिन्न है; क्योंकि वह आत्मा का स्वरूप है-स्वभाव है। ___ वत्थुसहावो धम्मो॥ (वस्तु का जो स्वभाव है, वही उसका धर्म है) इस व्याख्यान के अनुसार जलाना आग का धर्म है और बुझाना जल का; किन्तु आग के सम्पर्क में रहने पर जल भी जाने लगता है। यदि आग से दूर हटा दिया जाय तो खोलता हुआ जल भी फिर से धीरे-धीरे ठंडा हो जाता है। क्योंकि शीतलता ही उसका स्वभाव है। बीच में जो उष्णता आ गई थी, वह उसका विभाव था। उसी प्रकार शान्ति आत्मा का अभाव है, अशान्ति विभाव का विषय-कषाय के सम्पर्क से जीव अशान्त बच जाता है; परन्तु यदि उसका उनसे सम्पर्क तोड़ दिया जाय तो वह फिर से स्वभाव (शान्ति) में रमण करने लगेगा। सदाचार और परोपकार से आत्मा को शान्ति का अनुभव होता है; इसलिए शान्ति को जो साधन (सदाचार, परोपकार आदि) हैं, वे भी धर्म कहलाते हैं। यदि मैं किसी को शत्रु समझता हूँ तो उसे देखकर में अशान्ति, वैर, दुर्भावना, ईर्ष्या, क्रोध आदि का जन्म होने लगता है, जो अधर्म है। प्रभु महावीर ने इसीलिए : "मित्ती मे सब्बभूएसु॥" (मेरी सब प्राणियों से मित्रता है।) इस भावना को दृढ़ता से मन में स्थापित करने की बात कही थी; क्योंकि मैत्री-भावना धर्म में सहायिका है। धर्म ही मनुष्य को पशुओं से अलग करता है : आहार-निद्रा-भय-मैथुनंच सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥ (आहार, निद्रा, भय और मैथुन तो पशुओं में और मनुष्यों में समान रूप से पाये जाते हैं। धर्म मनुष्यों में अकेला अधिक गुण हैं, इसलिए जिन मनुष्यों में धर्म नहीं है, वे पशुओं के ११३ For Private And Personal Use Only
SR No.008726
Book TitleMoksh Marg me Bis Kadam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages169
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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