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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१ जब राम ने हनूमान से पूछा कि आप कौन हैं, तब हनूमानजी ने कहा था : देहरष्टया तु दासोऽहम् जीवरष्ट्या त्वदंशकः । प्रात्मदृष्टया त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मति: ॥ [देह (शरीर) की दृष्टि से मैं प्रापका दास हूँ (आप मेरे मालिक हैं), जीव की दृष्टि से मैं आपका अंश हूँ (जैसे सूर्य की एक किरण या समुद्र को एक लहर होती है); परन्तु आत्मा की दृष्टि से देखा जाय तो आपमें और मुझमें कोई अन्तर ही नहीं है] जीव ही संसार में अच्छे-बुरे कार्य करता है और वही उनके सुफल और कुफल भोगता है। जैनदर्शन इस बात से सहमत नहीं है कि ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। जो लोग ऐसा मानते हैं, वे जगत् की अव्यवस्था के लिए ईश्वर को अपराधी मानने का पाप करते हैं। जगत् में आज जो अन्याय है-अत्याचार है - भ्रष्टाचार है - दुराचार है - व्यभिचार है, उसके लिए क्या ईश्वर जिम्मेदार है ? नहीं, कभी नहीं। यदि कहीं कोई चोरी करता है और हत्या कर देता है तो क्या वह चोरी और हत्या परमेश्वरने कराई ? यदि 'नहीं' तो फिर ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता ! इस भ्रान्त धारणा का भार क्यों ढोया जाय ? जिस प्रकार देश, प्रदेश, जिले, तहसीलें, नगर, गाँव, मुहल्ले, घर और परिवार के सदस्य अनेक हैं; परन्तु विश्व एक ही है; उसी प्रकार आत्मा भी एक है। एक आत्मा के स्वरूप का परिचय होने पर समस्त प्रात्माओं के स्वरूप का अनायास परिचय हो जाता है। For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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