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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० [जो एक को जानता है, वह सब को जानता है और जो सब को जानता है, वह एक को जानता है ! ] बहुत गम्भीर बात कही गई है यहाँ। हम बगीचे में माली को देखते हैं। किसी पूरे वृक्ष का सिंचन करने के लिए वह केवल एक जड़ का सिंचन करता है। जो एक जड़ का सिंचन करता है, वह वास्तव में पूरे वृक्ष का ही सिंचन करता है। पूरे वृक्ष का सिंचन करने के लिए यदि कोई उसके प्रत्येक फूल को और पत्ते को जल पिलाने का प्रयास करे तो आप उसे मूर्ख कहेंगे; परन्तु यही मूर्खता हम सब उस समय कर रहे होते हैं, जब हम अपने आपको जानने के लिए जगत की प्रत्येक वस्तु को अलग-अलग जानने का प्रयास करते हैं। प्रात्मज्ञान हमारा अन्तिम लक्ष्य है । चिन्तन-मनन और अनुभव ही उसका एक मात्र साधन है । प्रात्मज्ञान का अर्थ है-जानने वाले को जानना, देखने वाले को देखना, सुनने वाले को सुनना और अनुभव करने वाले का अनुभव करना । यही सर्वज्ञता है-यही मुक्ति है-यही आनन्द है। जैन सिद्धान्त के अनुसार आत्मा पर कर्मों का प्रावरण है। यदि वह आवरण हटा दिया जाय तो आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर न रह जाय । अप्पा सो परमप्पा ॥ [आत्मा ही परमात्मा है] एक शायर ने लिखा है : शक्ले इन्साँ में खुदा था मुझे मालूम न था । चाँद बादल में छिपा था मुझे मालम न था ।। For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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