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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ खाये-खिलाये बिना जिनके दिन बीत जाते हैं, वे साँस लेते हुए भी लुहारकी धौंकनी के समान जीवित नहीं हैं। त्याग और भोग से रहित धन से यदि कोई अपने को धनवान् मानता है तो उसी धन से हम धनवान् क्यों नहीं कहला सकते ? यदि कोई कहता है कि मैं करोड़पति इसलिए हूँ कि बैंक में (मेरे खाते में) एक करोड़ रुपये जमा हैं - मैं दान या भोग नहीं करता तो क्या हुआ ? तो बैंक में जमा उसी करोड रुपयों की राशि से एक निर्धन व्यक्ति भी अपने को करोड़पति क्यों नहीं मान सकता ? दान-भोग में उस रोशिका उपयोग दोनों नहीं करते । कृपण अगले भवमें भिखारी बन कर क्या उपदेश देता है ? एक कवि के शब्दों में देखिये : बोधयन्ति न याचन्ते भिक्षुकास्तु गृहे गृहे । दीयतां दीयतां नित्य-मदातुः फलमीदृशम् ॥ [घर-घर में भिखारी याचना नहीं करते, किन्तु बोध (उपदेश) देते हैं : "दीजिये, सदा दान कीजिये; अन्यथा प्रदाता (कृपण) का फल ऐसा होता है ( वे हमारे समान भिखारी बन जाते हैं)"] अमुक धन कंजसका था - यह कैसे मालम होता है ? एक कविने उसका कारण इन शब्दों में बताया है : असम्भोगेन सामान्यम् कृपणस्य धनं परैः । अस्येदमिति सम्बन्धो हानौ दुःखेन गम्यते ॥ [सम्भोग न करने के कारण निर्धन और कंजूस का धन सामान्य (समानता रखने वाला) होता हे । हानि (नुकसान) होने पर जो दुःख होता है, उसीसे जाना जा सकता है कि For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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