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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७. कृपणता उदारताका विलोम है - कृपणता । यह मनकी एक संकुचित वृत्ति है, जो परोपकार में बाधक होती है । संसार में यदि मूरों की सूची बनाई जाय तो उसमें सब से ऊपर कृपण (कंजूस) व्यक्तियों का नाम लिखा जायगा; क्योंकि धन होते हुए भी वे उसका न भोग करते हैं और त्याग ही; केवल अर्जन, रक्षण और वियोगका दु:ख ही उनके पल्ले पड़ता है। एक कवि ने कृपणको सबसे बड़ा दाता बताते हुए उस पर व्यंग्य किया है : कपणेन समो दाता, न भूतो न भविष्यति । अस्पृशन्नेव वित्तानि, य: परेभ्यः प्रयच्छति ।। [कंजूस के समान दाता न हुअा है और न होगा, जो बिना छूए ही अपना धन दूसरोंको दे डालता है] , जीवित अवस्था में तो धनको छूकर देना पड़ता है; परन्तु कृपण मृत्यु के बाद दूसरों को धन देता है; इसलिए बिना छुए दे देता है अर्थात् मृत्यु के बाद दूसरे लोग उसके घनका मजे से उपभोग करते हैं । पिपीलिकार्जितं धान्यम् मक्षिका-सञ्चितं मधु । लुब्धेन सञ्चितं द्रव्यम् समूलं हि विनश्यति ॥ [चींटियोंके द्वारा इकट्ठा किया हुआ धान्य, मधुमक्खियों के द्वारा इकट्ठा किया गया शहद और लोभी के द्वारा इकट्ठा किया गया धन मूल सहित नष्ट हो जाता है। For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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